मां का गर्भ
नाम था दूसरा
प्रश्रय अपरिमित का
किन्तु हाय विडम्बना
नारी के भाग्य की
अजन्मी वह छोटी सी अवधि
भी टिक न पायी सुरक्षित
छोटा सा वह घरौंदा
ठण्डे लौह यन्त्रोंकी चपेटमें
कराह उठा
पुत्री ने उस अन्धकार में
अजन्मे ही
प्रश्रयदात्री की ठण्डी आँखों में
आँखें डाल दी
और पूछा
अब तुम भी?
और यहाँ भी?
औरत जाति की छाप लिए
मैं
पर्वतों की दरारों से
खुराक खींचती थी
अजन्में ही वह ठप्पा लगने पर
हाए, अब तो
जन्मदात्री ने भी
जन्म देने से इन्कार कर दिया।।
अलका निगम
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