सीधी, सपाट
कंकरीट सड़क
के वक्षस्थल
पर से जाते
आपने
विस्तृत घास
के नरम, गुदगुदे
हरित वस्त्र पर
सर्पीले श्वेत पट
से पडे
मुझे
देखा तो होगा!
नाम की जिसे परवाह नहीं,
प्रगति की कोई चाह नहीं,
अपनी पह्चान रहे
इसका भी सवाल नहीं,
कलान्त पथिक की
स्वेद बूंदें कुछ सोख सकूँ,
उसकी मंज़िल की
लम्बाई तनिक कम करूं,
इसे छोटी चाह से ही
अपना अस्तित्व जमाया
मैंने
दो विशालकाय राहों
के गर्वीले अहं
को ऊँचा रख
उनका मिलन कराया
मैंने
मैं,
जिसे, आप पगडंडी कहते हैं!
अलका निगम
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